Mini Carousel

Copy to clipboard

आस्था और आध्यात्म

   दो बातें आपको पूर्णता की ओर बढ़ने से रोकती हैं। एक, अभिलाषा यानी किसी चीज को पाने की चाह, जो आपके पास नहीं है और दूसरी है कोशिश, यानी जो आपके पास पहले से है, उसे बनाए रखने की चेष्टा। ये दोनों वस्तुएं ‘योगक्षेम’ कहलाती हैं। जीवन में चिंता, भय और तनाव के हेतु यही दोनों हैं। आस्था है यह जानना कि आप पाएंगे, जो आप चाहते हैं। आस्था यह जानना है कि जो कुछ भी आपके पास है, उसमें वृद्धि होगी और हमेशा बनी रहेगी। भगवान कृष्ण भी ‘गीता’ में कहते हैं, ‘वह जो किसी चीज के बारे में चिंता नहीं करता, लेकिन अपने अस्तित्व को मुझमें लगाता है, पूर्णरूप से; वह जो पूरी तरह से मुझको समर्पित है प्रतिदिन, मैं उसके योगक्षेम की परवाह करूंगा।’‘क्षेम’ कल्याण है, अर्थात जो कुछ किसी के पास है, उसे बनाए रखना। व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने हेतु तैयार करना। ‘योग’ है किसी को प्रदान करना, वह सब कुछ जो व्यक्ति इच्छा करता है। भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘यह मेरी जिम्मेदारी है। मैं इसकी चिंता करूंगा। मैं ध्यान रखूंगा कि तुम पीड़ित न हो। पर तुम अपनी चिंता का परित्याग करो।’ आस्था में यह आवश्यक है।
   आस्था का यह आधार है। आस्था क्या है? आस्था का मतलब बैठना और कहना नहीं है कि ‘अरे! मुझे कल क्या होगा? मुझे अगले दस वर्षों में क्या होगा? मैं जब बूढ़ा हो जाऊंगा, तो कौन मेरा खयाल रखेगा?’ यदि आप आध्यात्मिक पथ पर हैं, तब यह सोचना असंगत है कि ‘कौन मेरी परवाह करेगा? मेरा क्या होगा?’ मैं आपको बताता हूं। एक बार आपने इस पथ पर अपने कदम बढ़ा लिए , तो आपको इतना मिलेगा कि आपके लिए पचाना भी मुश्किल हो जाएगा! आपको इतना भोजन मिलेगा कि आप खा नहीं सकेंगे! आपके पास जाने के लिए बहुत जगहें होंगी। लोग लालायित रहेंगे कि आप आएं और उनके यहां ठहरें। आपको चिंता नहीं होगी कि कहां रुकना है, कहां खाना है, कैसे जाएंगे। इन्हें सोचना निर्थक है।
Comment

कोई टिप्पणी नहीं :